क्या हम बुलडोज़र राज की ओर बढ़ रहे हैं?”मगर यह उनको कौन बताए. जो बताएगा वह बुलडोज़र के नीचे आएगा

आतंकवाद ख़तरनाक है, लेकिन राज्य का आतंक उससे ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि इसका सीधा असर नागरिकों के जीने की स्वतंत्रता पर पड़ता है. सरकार जब तय कर लेती है कि वह किसी समूह या समुदाय को निशाना बनाएगी, जब वह कानूनी तौर-तरीक़ों की परवाह नहीं करती तो दरअसल वह सबसे पहले देश के साथ अन्याय कर रही होती है, अपने नागरिकों पर अत्याचार कर रही होती है

कर्नाटक के मुख्यमंत्री जो बोल रहे थे, वह असम के मुख्यमंत्री ने कर दिखाया. असम के मोरीगांव में बुलडोज़र चला कर एक मदरसा ध्वस्त कर दिया. मदरसे के मौलवी मुफ़्ती मुस्तफ़ा पर आतंकी संगठनों के संपर्क में रहने का संदेह है. आरोप सीधे अल क़ायदा की भारतीय इकाई से जुड़े रहने का है. 

जाहिर है, यह गंभीर आरोप है. लेकिन ऐसे आरोपियों से निबटने का कोई तरीक़ा क्या भारतीय कानून में नहीं है? जब आप क़ानूनों की या अदालत की परवाह किए किसी घर पर या इमारत पर या मदरसे पर बुलडोजर चला रहे होते हैं तो क्या उस वक्त वह बुलडोज़र भारतीय राश्ट्र राज्य की संवैधानिक प्रतिज्ञाओं पर भी नहीं चल रहा होता है?  आतंकवाद ख़तरनाक है, लेकिन राज्य का आतंक उससे ज़्यादा ख़तरनाक है, क्योंकि इसका सीधा असर नागरिकों के जीने की स्वतंत्रता पर पड़ता है. सरकार जब तय कर लेती है कि वह किसी समूह या समुदाय को निशाना बनाएगी, जब वह कानूनी तौर-तरीक़ों की परवाह नहीं करती तो दरअसल वह सबसे पहले देश के साथ अन्याय कर रही होती है, अपने नागरिकों पर अत्याचार कर रही होती है. जब वह बुलडोज़र से ही सारे इंसाफ़ करने को निकलती है तो सबसे पहली चोट इंसाफ़ की अवधारणा पर ही होती है. लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे हमारी सरकारों को शासन का यह बुलडोज़र मॉडल कुछ ज़्यादा रास आ रहा है. इस बुलडोज़र मॉडल के प्रणेता उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ माने जाते हैं. वे ‘अपराधियों से सख़्ती से निबटना’ राज्य का परम कर्तव्य मानते हैं. इसके लिए वे अपनी एजेंसियों को मुठभेड़ से लेकर बुलडोज़र तक के इस्तेमाल की छूट देते हैं. उत्तर प्रदेश में दंगा करने के आरोप भर से एक समुदाय के कई लोगों के घर गिरा दिए गए. सहारनपुर की हिंसा के बाद जिन लोगों की पुलिस थाने में पिटाई हुई और जिन्हें मंत्री रिटर्न गिफ़्ट बताते रहे, वे बाद में बेक़सूर निकले, यह अलग बात है. कानपुर में भी दंगे के नाम पर गिरफ़्तार किए गए लोग एक-एक कर छूट रहे हैं.  जाहिर है, अपराधियों से सख़्ती से निबटने की इस रणनीति में ‘अपराधी’ की शिनाख़्त का काम भी सरकारी एजेंसियां अपने हाथ ले लेती हैं. वे अपनी मर्ज़ी से अपराध और अपराधी तय करती दिखाई पड़ती हैं. यूपी में अचानक वे सारे लोग दंगाई करार दिए जाते हैं जो नागरिकता संशोधन बिल के ख़िलाफ़ आंदोलनरत थे. दूसरी तरफ़ हम पाते हैं कि इसी उत्तर प्रदेश में अपनी गाड़ी से किसानों को कुचल कर मार डालने के आरोपी एक मंत्री के बेटे को बचाने में राज्य की पूरी मशीनरी लग जाती है- इस हद तक कि उसको हाइकोर्ट की फटकार भी झेलनी पड़ती है.  तो यह यूपी का मॉडल है जो नेताओं और पुलिस की मर्ज़ी पर चलता है. उसकी इच्छा के हिसाब से गुनहगार और बेगुनाह तय किए जाते हैं. यूपी में जिन लोगों के घर बुलडोज़र चले, जिनके ख़िलाफ़ ‘रोमियो स्क्वॉड’ जैसी अजीब से नाम वाली टीम ने कार्रवाई की, जिनके ख़िलाफ़ मुठभेड़ हुई, उनका एक सामान्य सा हिसाब भी बता देगा कि इन सारी कार्रवाइयों के निशाने पर कौन सा समुदाय है. लेकिन यूपी का यह मॉडल बीजेपी को इतना सुविधाजनक और आकर्षक लगा कि इसे मध्य प्रदेश सरकार ने भी अपने यहां हुई हिंसा के बाद इस्तेमाल किया,अब कर्नाटक के मुख्यमंत्री चेतावनी दे रहे हैं कि वे भी योगी मॉडल अपना लेंगे. जाहिर है, उनकी नज़र में योगी मॉडल एक समुदाय के साथ सख़्ती की मिसाल है. यह योगी मॉडल उन्हें तब याद नहीं आया जब बेंगलुरु और मेंगलुरु की लड़कियों को राम सेने के लोग पीटने निकले, यह तब याद नहीं आया, जब बेंगलुरु में दूसरे बवाल हुए. यह तब याद आया जब राज्य के मुख्यमंत्री को लगा कि उन्हें अल्पसंख्यकों को एक चेतावनी देनी चाहिए. लेकिन यह बुलडोज़र मॉडल चलता है तो क्या होता है? क्या वह सिर्फ़ अल्पसंख्यकों पर भारी पड़ता है? कोविड की दूसरी लहर के दौरान जब अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से लोग मर रहे थे, तब इस बुलडोज़र का ज़िम्मा पुलिस बल के अतिरिक्त सरकार समर्थकों ने भी ले लिया. जिस किसी ने सोशल मीडिया पर अस्पतालों में बिस्तर की या ऑक्सीजन की कमी की शिकायत की, उसके ख़िलाफ़ उन्होंने मोर्चा खोल दिया. उनकी शिकायत को सरकार को बदनाम करने की साज़िश बताया. उनको सरेआ धमकियां दीं. कुछ पर संभवतः केस भी किया गया. अगर कुछ मामलों में किसी ने उदारतावश गलत सूचना भी डाल दी तो उन्हें प्रताड़ित होना पड़ा. बुलडोज़र मॉडल ऐसे ही चलता है. वह शासक के इस भरोसे से चलता है कि उससे कुछ भी गलत नहीं हो सकता. यही नहीं, वह अपने आदर्श नागरिकों का निर्माण भी करने लगता है. इस काम में सबसे पहले धार्मिक और जातिगत पहचानें उसके लिए आधार बनती हैं. इसके बाद वह आचार-व्यवहार, परिधान तक बदलने की कोशिश करने लगता है. वह यह भी बताने लगता है कि युवाओं को क्या करना चाहिए और लड़कियों को कैसा होना चाहिए. अंततः वह शासक की इच्छा जनता की मर्ज़ी में रूपांतरित कर लोकतंत्र का खात्मा कर देता है. ऐसी परियोजनाएं कई बार छोटे और इकहरी पहचानों वाले देश में कुछ समय तक कामयाब दिखती हैं. लेकिन भारत जैसे विराट देश में- जहां अतीत के पांच हज़ार वर्षों में पांच हज़ार परंपराएं विकसित हो चुकी हैं, जिसे सैकड़ों समुदाय इसे अपना घर बना चुके हैं, जहां हज़ारों बोलियां बोली जाती हैं- ऐसी परियोजनाएं एक हद के बाद दम तोड़ देती हैं. लेकिन इसके पहले वे कुछ लोगों और समुदायों पर क़हर बन कर ज़रूर टूटती हैं.

 दरअसल दुनिया भर में और ज़माने भर का अनुभव यही बताता है कि लोकतंत्र नेताओं की मजबूरी है, उनकी आस्था नहीं. वे जनता को जनार्दन मानते हैं, अपनी पार्टियों के नाम जनता या आम आदमी के नाम पर रखते हैं लेकिन जनता के साथ छल करने में कोई कसर नहीं छोड़ते. वे जनता को, जनादेश को, जनमत को बदलने की कोशिश करते हैं. उनकी कोशिशों का ही असर होता है कि बहुत सारे भोले-भाले लोगों के लिए लोकतंत्र एक खराब व्यवस्था बन जाता है और वे फ़ौजी शासन, कड़े कानून या सख़्त नेता की कामना करते हैं.  जबकि लोकतंत्र न कड़े क़ानूनों से चलता है, न सख़्त नेता से और न ही फौजी बूटों से. वह उन बहुत सारी संस्थाओं की मार्फ़त चलता है जो जनमत और जनादेश को बचाए रखने के लिए बनाई जाती हैं. उनका काम यह देखना होता है कि चुना हुआ जन प्रतिनिधि किन्हीं क़ानूनों और व्यवस्थाओं की आड़ में जनता से ही छल तो नहीं कर रहा है. न्यायपालिका, प्रेस, चुनाव आयोग, मानवाधिकार आयोग- ये सब वैसी ही संस्थाएं हैं जिनका काम लोकतंत्र को अपने जन प्रतिनिधियों से बचाना है.  लेकिन जब कोई बहुत लोकप्रिय नेता आता है, जब वह अपनी मसीहाई छवि के साथ जनता के बीच हुंकार लगाता है तो वह देश को अपने ढंग से, अपनी शर्तों पर गढ़ने का काम कर रहा होता है. वह अदालत, प्रेस- सबको अविश्वसनीय और ग़ैरज़रूरी जैसा साबित करने लगता है. कई बार इस लोकप्रियता का आतंक इतना ज़्यादा होता है कि अदालत या प्रेस का चरित्र ख़ुद भी बदलने लगता है. इसके बाद वह हुकूमत करने के आसान तरीक़े खोजने लगता है जिसमें सख़्ती दिखे, न्याय होता दिखे, विकास होता नज़र आए. वह ऐसे प्रतीक खोजने लगता है जिसमें उसकी छवि झांकती हो. अंदेशा यह होता है कि भारत के हुक्मरानों ने इन दिनों बुलडोज़र को ऐसा प्रतीक बना लिया है- उपद्रवियों को सज़ा देने का, और विकास को आगे ले जाने का. लेकिन उपद्रव की प्रकृति और उपद्रवी की पहचान का काम वे जिस तरह से कर रहे हैं, उससे उनके उपद्रवी भी बेलगाम होते नजर आ रहे हैं और उनका विकास भी ठहरा हुआ दिख रहा है. मगर यह उनको कौन बताए. जो बताएगा वह बुलडोज़र के नीचे आएगा. 

प्रियदर्शन NDTV इंडिया में एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर हैं…

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