लेख -विशेष :- नाहिदा क़ुरैशी
मुहर्रम का महीना इस्लाम के पांच सबसे अहम और अफजल महीनों में से एक है.
दोस्तों यूं तो हर महीने की अपनी-अपनी अहमियत और फजीलत है, लेकिन इस्लाम मजहब में चंद महीनों को सबसे अफजल करार दिया गया है, जिसमें मुहर्रम उल हराम का महीना भी शामिल है.इस महीने की फजीलत मोहर्रम का महीना इस्लाम का पहला महीना होता है जिस वजह से इसे इस्लामिक नए साल के शक्ल में भी मनाया जाता है.
यह महीना बेहद ही बा बरकत और रहमत वाला होता है, इस महीने में रोजा रखना सुन्नत है, जिसकी फजीलत काफी ज्यादा है.साथ-ही-साथ आपको बता दें इस महीने को गम का महीना भी कहा जाता है क्योंकि इस महीने की दसवीं तारीख को इमाम हुसैन ने कर्बला के मैदान में शहादत पाई थी.
करबला के मैदान में कुल 72 शहीदों ने शहादत पाई थी।
इस साल 2022 में माहे मोहर्रम 30-31 जुलाई को होगा और इस महीने की दसवीं तारीख 9 अगस्त को होगी.
इस माह की सबसे बड़ी फजीलते
नफिल रोज़ो का ज्यादा सवाब मिलता है।
गुनाहें माफ होती हैं।
दुआएं कबूल होती हैं।
तौबा कबूल होती है।
नफिल नमाज का ज्यादा सवाब मिलता है।
आइए जानते है क्यो हुई जंग
मोहर्रम के महीने में इस्लाम धर्म के संस्थापक हजरत मुहम्मद ( सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ) साहब के छोटे नवासे हजरत इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों का कत्ल कर दिया गया था। हजरत इमाम हुसैन इराक के शहर करबला में यजीद की फौज से लड़ते हुए शहीद हुए थे।
इमाम हुसैन को इस वजह से थी यजीद से नाइत्तेफाकी
इस्लाम में सिर्फ एक ही खुदा की इबादत करने के लिए कहा गया है। छल-कपट, झूठ, मक्कारी, जुआ, शराब, जैसी चीजें इस्लाम में हराम बताई गई हैं। हजरत मोहम्मद ने इन्हीं निर्देशों का पालन किया और इन्हीं इस्लामिक सिद्घान्तों पर अमल करने की हिदायत सभी मुसलमानों और अपने परिवार को भी दी।
दूसरी तरफ इस्लाम का जहां से उदय हुआ, मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया रज़ियल्लाहु तआला अन्हा के खिलाफत का दौर था। हजरत मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण मौजूद थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा।
यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें और उसकी बैत ले, क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर अच्छा प्रभाव है अगर वो बैत कर ले ( इताअत ) कर ले तो ‘शाम’ के लोग ऐसे ही उसकी खिलाफत मान लेंगे ।
यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इन्कार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे।
इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ मक्का मुहर्रम में रहने लगे जब तक वो वहां रहे तब तक चैन ओ सुकून से रहे लेकिन कूफ़ा वालो ने लगातार खत भेज कर उन्हें दावत दी कि मुल्के शाम के यजीद की बैत हम नही करेंगे आप अली रज़ियल्लाहु तआला अन्हो के वारिस है हम आपकी बैत करना चाहते है , कई खतों के बाद उन्होंने मक्का के सारे सहाबियों से बात की पर किसी ने जाने के लिए ‘ हां ‘ नही किया सब का मशवरा यही होता कि वहां न जाये पहले भी कूफ़ा में हजरत हसन जो कि हजरत हुसैन के बड़े भाई थे उन्हें भी वहां जहर दे कर छल कपट से शहीद कर दिया गया था , लेकिन लगातार कई दिनों तक खतों का दौर इसी तरह चलता रहा और एक दिन सवेदना से भरा खत जब हजरत हुसैन को मिला तो वो नही रुक पाए खत में लिखा था – रोजे महशर में अगर खुदा हमसे पूछेगा की तुमने यजीद की बैत क्यो की तो हम आप का नाम लेंगे , इस खत को पढ़ने के बाद वो खुद को रोक नही पाएं और चंद लोगो को लेकर निकल पड़े कूफ़ा की ओर कूफ़ा शहर मुल्के शाम(इराक) की तरफ निकल पड़े थे। चूंकि कई दिनों से खत आ रहे थे उन्होंने अपने भाई मुस्लिम बिन अकील को कूफ़ा के माहौल का जायजा लेने भेज दिया था मुस्लिम बिन अकील ने वहां का बेहतरीन माहौल देखा तो उन्होंने हजरत हुसैन को खबर भेजी की मौला आप आ जाइये यहां का माहौल बहुत अच्छा है लोगो के अखलाक ( व्यवहार)आपके लिए बेइंतिहा मोहब्बत भरे है ।
इधर जब मुस्लिम बिन अकील ने खत रवाना किया तभी नया गवर्नर आ पहुँचा और सारे कूफ़ा में उन्हें कैदियों की तरह ढूंढा गया , और सबसे पहले कर्बला के वाकया में पहले शहीद मुस्लिम बिन अकील हुए और उनके साथ आये उनके दो नन्हे शहज़ादे जो उनके बेटे थे उन्हें भी शहीद कर दिया गया ।
इस बात से बेखबर हजरत हुसैन छोटे से काफिले को लेकर निकल चुके थे जब कूफ़ा शहर , उनका काफिला पहुँचने ही वाला था कि यजीद की एक हजार की फौज ने उनका रास्ता रोक लिया और उन्हें आगे जाने नही दिया गया , उन्होंने पूछा तो उन्हें जानकारी दी गयी कि आगे जाने से यजीद ने मना किया है ।
हजरत हुसैन ने कहा ठीक है हम मदीने चले जाते है , ऐसा करने से भी उन्हें मना कर दिया गया ।
फौज ने लगातार रास्ते बदले उनके आखिर कार एक जगह पर जा कर फौज के सिपहसालार ने उन्हें रोका और कहा आप अपने काफिले को यही रोक ले , हजरत हुसैन ने पूछा -ये जगह कौन सी है उन्हें बताया गया ये “कर्बला” है ।
यहां नहरें फुरात है यहां आप को भी पानी मिलेगा और हमारी फौज को भी इतना कह कर काफिले के खेमे लगवाए गए , करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद के सिपाहीयो ने उनके सामने शर्तें रखीं की आप यजीद की बैत कर ले और फिर आपको जाने दिया जाएगा , हजरत इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी, हजरत ने जंग की बात को भी मना कर दिया , वो जंग नही चाहते थे ।
ऐसे में इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की भी मनाही कर दी गयी
हजरत इमाम हुसैन जंग का इरादा नहीं रखते थे क्योंकि वो अमन चाहते थे उनके काफिले में 82 लोग थे जिसमें से 9 औरते और एक बेटा जैनुल्लाब्दीन , जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे तो वही दूसरी तरफ यजीदी लश्कर में 22 हजार सिपाही थे , यह तारीख एक मोहरर्म की थी, और गर्मी का वक्त था। गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और खासकर पानी था वह खत्म हो चुका था।
हजरत इमाम हुसैन सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के तमाम लोग भूखे प्यासे रहे लेकिन सब्र का दामन नही छोड़ा ।
यजीदी की फौज ने तो सब्र करना सीखा ही न था हजरत इमाम हुसैन के खेमे की तरफ तीरों की बारिश चालू कर दी गयी ,10 मुहर्रम को इमाम हुसैन के घर बेटों ने भाई ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के खेमे में कोई न बचा तब हजरत इमाम हुसैन खुद गए और जंग करते रहे यजीद की फौज सोच में पड़ गयी कि बिना खाये,बिना पियें ये इतनो पर भारी है तो सोचिए अगर पानी पी लेते तो इनका क्या हाल होता …..लेकिन वो भी दिन था जुमे का हजरत इमाम हुसैन लड़ रहे थे लेकिन फिर भी यादे इलाही की तड़प ऐसी की भाले तीर बरछे लिए लोग उन पर वार कर रहे थे और उन्हें जुमा की नमाज की फिक्र थी हालांकि की वो जानते थे कि सफर में नमाज के लिए अल्लाह ने रियायत दी है पर वो नबी के नवासे थे उन्होंने फौज से कहा – क्या थोड़े वक्त के लिए ये जंग टाल नही सकते हो , मुझे 2 रकात नमाज पढ़नी है , उनकी बात सुनकर फौज ने जंग रोक दी , उन्होने फौरन नमाज अदा करनी शुरू कर दी , एक रकात नमाज हो गयी थी दूसरी के सजदे में अभी हजरत सजदे में थे कि बस यजीदी फौज ने एक दूसरे को इशारा किया और कहा यही मौका है इनके गर्दन यही उतार लो, क्यो की ये हजरत अली के बेटे है अगर उठे तो फिर अब हम नही बच पायंगे , इतना था कि नमाज पढ़ रहे हजरत इमाम हुसैन को इन लोगो ने मिलकर शहीद कर दिया ।
इस जंग में हजरत इमाम हुसैन के एक बेटे जैनुल आबेदीन ही थे जो जिंदा बचे क्योंकि 10 मोहर्रम को वह बीमार थे शदीद बुखार की वजह से उन्हें जंग में शामिल होने के लिए हजरत इमाम हुसैन ने मना किया था और बाद में उन्हीं से मुहम्मद साहब की पीढ़ी चली। कर्बला से जब दमिश्क ले जाया गया उस वक़्त सिर्फ 10 लोग ही बाकी थे बाकी 72 लोगो की शहादत हो चुकी थी ।
” कर्बला में वादा अपना निभाने वाला हुसैन …
हक की खातिर सर कटाने वाला हुसैन …
वो कैसे हो सकते है गुमराह जमाने मे …
जिन्हें जहाँ में रास्ता बताने वाला हुसैन …!