सन 1857 के गदर में मौलवी मोहम्मद बाकर ने ब्रिटिश गवर्नमेंट के सामने सर नहीं झुकाया यहां तक कि उन्हें तोप से बांधकर शहीद कर दिया गया था
दिल्ली के एक इज़्ज़दार घराने मे जन्मे मौलवी मोहम्मद बाक़र की पैदाईश सन 1790 को हुई थी पिता मौलाना मोहम्मद अकबर बेहतरीन शख्सियतों मे से थे जिसके कारण मोहम्मद बाकर की मज़हबी तालीम दिल्ली के जाने-माने विद्वान मियां अब्दुल रज्ज़ाक के सानिध्य में उन्होने आगे की शिक्षा पायी
1825 में उनका देहली कालेज में दाखिला हुआ व पढ़ाई मुकम्मल कर वह दिल्ली कॉलेज मे ही फ़ारसी के शिक्षक बने व कुछ समय बाद अपनी शिक्षा की बदोलत ही सरकारी विभाग मे कई वर्षो तक ज़िम्मेदार पदो पर भी रहे लेकिन मन मे वो सुकून और शांति नही मिली, अंग्रेज़ी हुकूमत का क्रूर शासक रवैया दिल मे अजीब सी बैचेनी का माहौल बनाकर उनके दिल को आज़ादी के लिए कचोटता आखिरकार अपनी बाग़ी सोच और वालिद के कहने पर सरकारी पद से इस्तीफा दे दिया था
सन 1836 मे प्रेस ऐक्ट पास किया और मौलवी बाक़र अली ने दिल्ली का सबसे पहला उर्दु अख़बार देहली उर्दू के नाम का साप्ताहिक शुरू किया था उस समय अखबार निकालना बहुत मुशकिल भरा काम होता था पर मौलवी ने साप्ताहिक उर्दू अखबार कि प्रेस को खड़ा किया यह समाचार पत्र लगभग 21 वर्षों तक संचालित रहा जिसमे इसका नाम भी दो बार बदला गया इसकी क़ीमत महीने के हिसाब से उस समय एक रु थी इसके अलावा 1843 में मौलवी बाकर अली ने एक धार्मिक पत्रिका मजहर-ए-हक भी प्रकाशित की थी जो 1848 तक चली थी
जिस समय देश में स्वतंत्रता के लिए आन्दोलन चल रहा था उस समय भारतीय भाषाओं में उर्दू ही एकमात्र ऐसी भाषा थी जो देश के कोने-कोने में समझी और बोली जाती थी उस समय उर्दू के साहित्यकारों और लेखकों ने भी देश के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझा व उसका निर्वाह भी किया था उस सफर मे उर्दू ने पूरे स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास को अपने आप में ओढ़ रखा था।
मौलवी बाकर अपने क्रांतिकारी लेखों से देशवासियों में जोश जगाते रहे 1857 के गदर के दौरान उनकी कलम की धार लगातार तेज होती गई जिससे अंग्रेज अफसर बेचैन हो उठे और अंग्रेजों की आंखों में तेजी से खटकने लगे 14 सितंबर 1857 मे गिरफ्तार करके बिना किसी ट्रायल के 16 सितंबर 1857 को तोप से उड़वा दिया गया पत्रकारिता और आजादी के लिए कुर्बान होने वाले मौलवी मुहम्मद बाकर को इतिहास में वो मुकाम नहीं मिल पाया जिसके वह वास्तविक हकदार थे
आज पत्रकारिता की एसी हालत है दिनरात टीवी चैनल और दूसरे माध्यम सांप्रदायिक बंटवारे की साम्रगी परोसते रहते हैं ऐसे माहौल में पत्रकारिता के छात्रों के लिए मौलवी बाकर जैसे जांबाज पत्रकारों के बारे में जानना जरूरी है जो निडर होकर अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ अपनी कलम थामकर खड़े रहे थे मौलवी मोहम्मद बाक़र पहले पत्रकार थे जिन्हें 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह और उनके खिलाफ लिखने के आरोप में तोप के मुंह पे रख के उड़ा दिया गया एक वो भी दौर था और एक यह भी दौर है
यकीनन यह पत्रकारिता का सबसे घटिया दौर हैं
कुछ चैनल मालिको अथवा स्टूडियो मे बैठे न्यूज एकरो ने पत्रकारिता को नीलाम करके रख दिया है चंद दलाल पत्रकारों ने इस देश का बेड़ा गर्क कर के रख दिया है यह दौर पत्रकारिता का सबसे भयावह दौर है जहां चंद पत्रकारों की वजह से पत्रकारिता चंद सत्ताधारी और पूंजीपतियों की रखैल बन कर रह गई है।
✍️तैय्यब अली
Jabeen Shams Nizami