Thursday, March 28, 2024

अमृत काल में उलटी चाल(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

अमृत काल में उलटी चाल
(आलेख : राजेंद्र शर्मा)

सामूहिक चेतना का डिमॉन्स्ट्रेशन था ‘‘घर-घर झंडा’’?

प्रधानमंत्री मोदी ने 76वें स्वतंत्रता दिवस पर लाल किले से अपने संबोधन में अपने ‘घर-घर तिरंगा’ के आह्वान/अभियान का यूं तो कई बार जिक्र या इशारा किया। फिर भी, इस अभियान का सबसे व्यवस्थित जिक्र प्रधानमंत्री ने इसका दावा करते हुए किया कि पिछले दिनों, जाहिर है कि उनके शासनकाल में ही, ‘‘भारत में सामूहिक चेतना का पुनर्जागरण हुआ है।…आजादी के इतने संघर्ष में जो अमृत था, वे अब संजोया जा रहा है, संकलित हो रहा है। संकल्प में परिवर्तित हो रहा है, पुरुषार्थ की पराकाष्ठा जुड़ रही है और सिद्धि का मार्ग नजर आ रहा है।” आदि-आदि।

प्रधानमंत्री साफ करते हैं कि ‘‘घर-घर झंडा’’ अभियान इसी कथित ‘‘सामूहिक चेतना’’ का डिमॉन्स्ट्रेशन था, जिसका उनके राज के पिछले कुछ वर्षों में पुनर्जागरण हुआ है।

इस डिमॉन्स्ट्रेशन के महत्व पर जोर देते हुए प्रधानमंत्री कहते हैं कि ‘‘10 अगस्त तक लोगों को पता तक नहीं होगा शायद कि देश के भीतर कौन सी ताकत है। लेकिन, पिछले तीन दिन से जिस तरह से तिरंगे झंडे को लेकर…देश चल पड़ा है, बड़े-बड़े सोशल साइंस के एक्सपर्ट्स भी शायद कल्पना नहीं कर सकते कि…मेरे देश के भीतर कितना बड़ा सामर्थ्य है, एक तिरंगे झंडे ने दिखा दिया।’’ वह जोर देकर कहते हैं कि ‘‘ये पुनर्चेतना, पुनर्जागरण का पल है। ये लोग (सोशल साइंस के एक्सपर्ट्र्स, आदि) समझ नहीं पाए हैं।’’

तो क्या सचमुच प्रधानमंत्री ‘‘घर-घर झंडा कार्यक्रम’’ को, स्वतंत्रता के 75 वर्ष पूरे होने के लाल किले के जश्न को क्लाइमेक्स के रूप में और ज्यादा चमकाने के लिए, उसके लिए वातावरण निर्माण के पूर्व-ईवेंट से ज्यादा, किसी प्रकार के राष्ट्रीय चेतना के जागरण के रूप में देखना और दिखाना चाहते थे, जो स्वतंत्रता आंदोलन के साथ निरंतरता में हो?

प्रधानमंत्री हाथ के हाथ, इस जागरण के अपने अन्य उदाहरणों से, खुद ही यह गलतफहमी दूर कर देते हैं। वह बताते हैं कि ‘‘जब…जनता कर्फ्यू के लिए हिदुस्तान का हर कोना निकल पड़ता है, तब उस चेतना की अनुभूति होती है। जब देश ताली, थाली बजाकर कोरोना वारियर्स के साथ कंधे से कंध मिलाकर खड़ा हो जाता है, तब चेतना की अनुभूति होती है।’’ दीया जलाकर कोरोना वारियर्स को शुभकामनाएं देने से लेकर वैक्सीन लगवाने तक में उसी ‘‘चेतना की अनुभूति होती है’’। लेकिन, इस सब में बहुत से लोगों के शामिल होने के अलावा कॉमन और क्या चीज है? यही कि ये सब शासन द्वारा प्रायोजित ईवेंट थे। यह तो कोरोना से लड़ाई से लेकर, आजादी के अमृत वर्ष तक को मनाने तक के नाम पर, मोदी के आदेश पर हुए कमांड परफार्मेंस का ही मामला है, न कि किसी भी तरह की राष्ट्रीय चेतना के जागरण का।

आश्चर्य की बात नहीं है कि आजादी के पचहत्तर साल (seventy five years of independence) पूरे होते-होते, जिसमें जाहिर है कि सबसे बढक़र मोदी राज के आठ साल शामिल हैं, ब्रिटिश औपनिवेशिक राज से स्वतंत्रता के संघर्ष में जनता के देखे सपनों का क्या हाल हुआ है, इसका कुछ अंदाजा इस ‘‘घर-घर झंडा’’ अभियान से जुड़े, हाल के दो प्रकरणों से लगाया जा सकता है।

पहले प्रकरण के दो पहलू हैं। पहला यह कि पूरी सरकार भारत के 75वें स्वतंत्रता दिवस पर, प्रधानमंत्री मोदी के ‘‘घर-घर तिरंगा’’ के आह्वान को पूरा कराने में प्राणप्रण से जुटी हुई थी। भारत सरकार के साथ, इस मामले में कम से कम दिल्ली की आप पार्टी की सरकार तो होड़ लगा ही रही थी।

ताजा राजनीतिक भाषा कोष के एक खासे लोकप्रिय जुम्ले का सहारा लें तो, अब हमें एक साथ झंडे फहराने का विश्व रिकार्ड बनाने से और प्रधानमंत्री को लाल किले से अपने संबोधन में इसके लिए देशवासियों को बधाई देने और गौरवान्वित होने का एहसास दिलाने से कोई नहीं रोक सकता था। अकेले डाक विभाग ने ही एक करोड़ तिरंगे बेचने की जानकारी सार्वजनिक की थी।

इसी प्रकरण का दूसरा पहलू यह है कि तिरंगे की सप्लाई बढ़ाने के लिए मशीन से बने तथा कृत्रिम धागे से बुने कपड़े के तिरंगों के लिए भी इजाजत देने के लिए, राष्ट्रीय ध्वज संहिता में संशोधन कर ढील दिए जाने से लेकर, सत्ताधारी पार्टी तथा उससे जुड़े संगठनों द्वारा अपने दफ्तरों आदि से इसी मौके लिए तिरंगे बेचे जाने आदि से आगे, पिछले कुछ अर्से में लगातार इसकी खबरें आती रही थीं कि शासन-प्रशासन द्वारा लोगों को घर-घर झंडा लगाने के लिए तिरंगा खरीदने के लिए तरह-तरह से मजबूर किया जा रहा था। शासन के लिए इसका सबसे आसान तरीका तो सरकारी कर्मचारियों पर ‘राष्ट्रभक्ति’ के इस प्रदर्शन की शर्त थोपना ही था।

व्यापक रूप से मीडिया में खासतौर पर इसकी खबरें आयी थीं कि किस तरह सरकार द्वारा नियंत्रित सबसे विशाल संस्थान, भारतीय रेलवे में सभी कर्मचारियों को उनके वेतन में 38 रु0 काटकर, अपना तिरंगा प्रेम प्रदर्शित करने के लिए मजबूर किया गया है। जाहिर है कि अन्य सभी सरकारी विभागों की भी कमोबेश ऐसी ही कहानी थी।

उधर कश्मीर से इसकी खबर आयी कि वहां छात्रों, दूकानदारों, वाहन चालकों, आदि को, लाउडस्पीकर से एनाउसमेंट कर के, अपनी दूकानों, वाहनों आदि पर तिरंगा लगाने के लिए चंदा जमा कराने का फरमान दिया जा रहा था और कहा जा रहा था कि ऐसा न करने पर दूकानों आदि को बंद कर दिया जाएगा। शर्मिंदगी छुपाने की कोशिश करती सरकार के इसका खंडन करने तक, उत्तर प्रदेश से शुरू होकर, अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग जगहों से इसकी खबरें आने लगीं कि विभिन्न सरकारी सुविधाओं/सेवाओं के ‘लाभार्थियों’ को और सबसे बढक़र मुफ्त या सस्ते राशन के लाभार्थियों को, राशन दिए जाने की शर्त के रूप में तिरंगा खरीदने के लिए मजबूर किया जा रहा था। भाजपा-शासित हरियाणा में करनाल से, 20 रुपए में झंडा खरीदे बिना महीने का राशन न दिए जाने का वीडियो और उस पर राहुल गांधी से लेकर वरुण गांधी तक की टिप्पणियां वायरल होने के बाद, सरकार ने बेशक अपनी ओर से पीडीएस के राशन के वितरण के लिए ऐसी शर्त लगाने का खंडन कर दिया, लेकिन तब तक यह संदेश सब तक पहुंच चुका था किस तरह लोगों पर, तिरंगा प्रेम का यह प्रदर्शन थोपा जा रहा था।

लेकिन, इस राष्ट्रप्रेम प्रदर्शन का सबसे खतरनाक खेल अब तक भी सामने आना बाकी था। इस खेल की, देशभक्ति के शोर-शराबे पीछे आज सत्ता में सवार संघ-भाजपा के झूठे राष्ट्रप्रेम की चकाचोंध के अंधेरे में, उनके स्वतंत्रता संघर्ष से दूर रहने से भी आगे बढ़कर, उसके खिलाफ काम कर रहे होने के सच को छुपाने की नीयत तो प्राय: सभी देख सकते थे। लेकिन, इसका और भी खतरनाक पहलू उत्तराखंड के भाजपा अध्यक्ष, महेंद्र भट्ट के इसके सार्वजनिक आह्वान के साथ सामने आया कि जिन घरों पर तिरंगा नहीं लगाया गया हो, उनकी तस्वीरें उन्हें भेजी जाएं।

उनका कहना कि ऐसे परिवारों पर वह यानी सत्ताधारी भरोसा नहीं कर पाएंगे और उन्होंने यह धमकी भी दी कि ‘समाज को ऐसे घरों का पता लगना चाहिए।’ इसका वीडियो वाइरल होने और चौतरफा आलोचनाओं के बाद, भाजपा राज्य अध्यक्ष ने इसके बहाने से अपना बचाव करने की कोशिश तो की कि उनका उक्त निर्देश प्रधानमंत्री के आह्वान के बाद भी, घर पर तिरंगा न फहराने वाले भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए ही था, आम जनता के लिए नहीं। लेकिन, उनकी यह सफाई भी कम से कम इससे इंकार नहीं करती थी कि संघ परिवार के लिए, ‘‘घर-घर झंडा’’ का एक मकसद, कथित गैर-राष्ट्रभक्तों की पहचान करना भी था।

कहने की जरूरत नहीं है कि मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक तथा अन्य असहमति की आवाज उठाने वाले ही, इस राष्ट्रभक्ति की पहचान बल्कि राष्ट्रद्रोहियों की निशानदेही की अति गोपनीय मुहिम के निशाने पर थे। यह तिरंगे को संघ-भाजपा की सांप्रदायीकरण की मुहिम का ही विस्तार बना देता है।

लेकिन संघ-भाजपा तथा उनके द्वारा नियंत्रित शासन में राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष के प्रतीक स्वतंत्रता दिवस तथा तिरंगे का ऐसा हश्र होना ही स्वाभाविक है।

बेशक, यह स्वतंत्रता आंदोलन के सार तथा उसकी भावनाओं से ठीक उल्टा है। लेकिन, संघ-भाजपा भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की स्पिरिट के ठीक इसी तरह पलटे जाने का ही तो प्रतिनिधित्व करते हैं।

आखिरकार, जब राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा और उसकी विभिन्न उपधाराएं, विदेशी शासन के खिलाफ धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और आर्थिक हैसियत के विभाजनों से ऊपर उठकर, इस महादेश के सभी निवासियों को एकजुट करने में लगी हुई थीं, तब आरएसएस और हिंदू महासभा जैसी ताकतें, कथित रूप से हिंदुओं के हितों की हिफाजत करने के नाम पर हिंदुओं को उसी प्रकार मुसलमानों के खिलाफ खड़ा करने की कोशिश कर रही थीं, जैसे मुस्लिम लीग हिंदुओं के खिलाफ मुसलमानों को खड़ा करने की कोशिश कर रही थी।

जाहिर है कि भारतीयों का इस तरह आपस में लड़ाया जाना, भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के खिलाफ, अंगरेजी राज की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का ही मददगार था। संघ-भाजपा स्वतंत्र भारत में अब भी उसी खेल को आगे बढ़ाने में लगे हुए हैं और इसलिए, स्वतंत्रता आंदोलन से उल्टी धारा का प्रतिनिधित्व ही नहीं करते हैं, स्वतंत्रता दिवस से लेकर तिरंगे तक, स्वतंत्रता संघर्ष के सभी चिन्हों को बंटवारे के हथियारों में बदलने में भी लगे हुए हैं।

पर अमृतकाल में यह उल्टी चाल सिर्फ सांप्रदायिक बहुसंख्यकवाद की चाल नहीं है। यह उल्टी चाल उतनी ही तानाशाही की भी चाल है और इसे भी मोदी राज के छद्म तिरंगा-प्रेम ने भी उजागर किया है। जिस राष्ट्रीय झंडे को गिरने न देने के लिए, स्वतंत्रता संघर्ष में लाखों भारतीयों ने प्राणों की आहुति देने जैसे सर्वोच्च त्याग समेत अनगिनत कुर्बानियां दी थीं तथा कष्ट सहे थे, उसी के प्रति आदर तथा प्रेम का प्रदर्शन करने के लिए देशवासियों को जबर्दस्ती मजबूर किया जाना, एक तानाशाहीपूर्ण सनक में किये जा रहे, तिरंगे के अभूतपूर्व सम्मान के नाम पर, उसके घोर निरादर के सिवा और कुछ नहीं है। यह भारत की राष्ट्रीय चेतना से ठीक उलट है।

बेशक अमृत काल के नाम पर, इसी राष्ट्रीय आंदोलन से उल्टी चाल का एक और संकेतक, खादी के तिरंगे की आजादी की लड़ाई के समय से चली आती शर्त को खत्म कर, मशीन से बने पोलिएस्टर के तिरंगे की इजाजत है, जो अंतत: तिरंगों के आयात की इजाजत भी साबित हुई है। तिरंगा घर-घर पहुंचा भी है, तो स्वतंत्रता की जगह परनिर्भरता का संदेश लेकर। और रही बात कतार के अंतिम व्यक्ति के आंसू पोंछने की तो, गरीबों को राशन के लिए बीस रुपए का तिरंगा खरीदने पर मजबूर किया जाना, तिरंगे को उनके आंसू पोंछने के आश्वासन की जगह, उनके आंसू निकलवाने का कारण ही बना है। 75वें साल में इससे उल्टी यात्रा और क्या होगी!

(लेखक प्रतिष्ठित पत्रकार और ‘लोकलहर’ के संपादक हैं। संपर्क : 98180-97260)

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