अमरीका के वित्त मंत्री (ट्रेजरी सेक्रेटरी) जेनेट येल्लेन ने आखिरकार उस स्वत: स्पष्ट सचाई को कबूल कर लिया है, जो काफी समय से ज्यादातर लोगों को दिखाई दे रही थी। और यह सचाई, यह है कि अमरीका का दूसरे देशों पर पाबंदियां लगाना, दुनिया की सुरक्षित मुद्रा के रूप में डॉलर के वर्चस्व के लिए नुकसानदेह है और उसके लिए खतरा पैदा करता है।
अमरीका की पाबंदियां उल्टी पड़ रही हैं
अगर इस तरह की पाबंदियां एकाध देश पर ही लगायी जा रही होतीं, तब तो बात दूसरी थी। लेकिन, इन दिनों तो अमरीका, दर्जनों देशों को निशाना बनाने के लिए इन पाबंदियों का इस्तेमाल कर रहा है। और जब ऐसा होता है, तो ये देश भी वैकल्पिक व्यवस्थाएं गढऩे की ओर बढ़ जाते हैं, ताकि इन पाबंदियों को धता बता सकें। ये वैकल्पिक व्यवस्थाएं, अमरीका के दबदबे वाली अब तक चली आ रही उस विश्व व्यवस्था को ही कमजोर कर रही हैं, जिसकी पहचान डॉलर के वर्चस्व से होती आ रही थी।
यह विडंबनापूर्ण है, पर इस पर हैरानी नहीं होगी (आखिर, बाइडेन प्रशासन के एक वरिष्ठ सदस्य से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है) कि इस सचाई को कबूल करने के बावजूद, जेनेट येल्लेन ने एलान किया है कि वह उन पाबंदियों के पक्ष में हैं, जो इस समय अमरीका लगा रहा है। उन्होंने यह भी कबूल किया है कि जब ऐसे देशों के खिलाफ पाबंदियां लगायी जाती हैं, जिनकी सरकारें ऐसी नीतियों पर चल रही होती हैं जो अमरीका को पसंद नहीं आती हैं, तो ऐसी पाबंदियां संबंधित नीतियों को बदलवाने के मामले में, नाकारा ही साबित होती हैं। इसके बजाए ये पाबंदियां, अपना निशाना बनाए जाने वाले देशों की जनता पर भारी तकलीफें जरूर ढहाती हैं। इस सिलसिले में वह ईरान का उदाहरण भी देती हैं। सालों से चल रही पाबंदियों के बावजूद, ईरानी सरकार की वे नीतियां तो नहीं बदली हैं, जिनको अमरीका नापसंद करता है। हां! ईरानी जनता को जरूर इन पाबंदियों के चलते भारी तकलीफें झेलनी पड़ी हैं। जैसाकि उन्होंने खुद कहा: ‘‘ईरान के खिलाफ हमारी पाबंदियों ने उस देश में वास्तविक आर्थिक संकट पैदा कर दिया है और पाबंदियों के चलते ईरान को आर्थिक रूप से भारी तकलीफ झेलनी पड़ रही है।…लेकिन, क्या यह उसे अपना आचरण बदलने के लिए मजबूर कर पाया है? जवाब है : हमने आदर्श रूप से जितनी अपेक्षा की है, उससे बहुत ही कम।’’ बहरहाल, सचाई की यह स्वीकृति भी उन्हें अमरीका द्वारा पाबंदियां थोपे जाने का समर्थन करने से रोक नहीं पाती है। उल्टे, ईरान के ही मामले में वह अनुमोदन के स्वर में यह कहती हैं कि अमरीका, अपनी पाबंदियों को और भी बढ़ाने के ही रास्ते तलाश कर रहा है।
लेन-देन के माध्यम के रूप में डॉलर की भूमिका खतरे में
इन पाबंदियों का निशाना बनने वाले देशों के ऐसी वैकल्पिक व्यवस्थाएं करने की बात आज के हालात में स्वतः स्पष्ट है, जोकि अमरीका के प्रभुत्ववाली विश्व व्यवस्था को ही कमजोर रही हैं। रूस, जिसे इस तरह की पाबंदियों का निशाना बनाया गया है, अनेक देशों के साथ उसी प्रकार की द्विपक्षीय व्यवस्थाएं फिर से स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं, जिस तरह की व्यवस्थाएं सोवियत संघ के जमाने में हुआ करती थीं। उस व्यवस्था में दूसरे देशों के साथ उसका व्यापार, डॉलर के माध्यम से होने के बजाए, रूबल और स्थानीय मुद्रा के बीच सीधे लेन-देन से चलता था और उनके बीच विनिमय दर स्थिर बनी रहती थी।
इस तरह की व्यवस्था से होता यह है कि डॉलर को, विश्व व्यापार के एक हिस्से के लिए, लेन-देन के माध्यम की उसकी भूमिका से अपदस्थ कर दिया जाता है। और यही चीज है, जो डालर के वर्चस्व के लिए खतरा पैदा कर रही है। अब विश्व व्यापार में हिसाब-किताब की इकाई के रूप में डॉलर की भूमिका यानी कीमतों का डॉलर में ही व्यक्त किया जाना, अपने आप में कोई खास महत्व नहीं रखता है। डॉलर के वर्चस्व के पीछे उसकी यह भूमिका है ही नहीं। डॉलर को अपनी अनोखी हैसियत हासिल होती है इस तथ्य से कि देशों के बीच के इस लेन-देन के संपन्न होने के लिए, वास्तव में डॉलरों की जरूरत होती है।
बेशक, डॉलर संपदा रखने के एक रूप का भी काम करता है। लेकिन, डॉलर की यह भूमिका भी उसके लेन-देन का माध्यम होने से ही निकलती है। दूसरे किसी भी माल से भिन्न, डॉलर का इस अर्थ में कोई खास अंतर्निहित मूल्य नहीं होता है, क्योंकि उसके उत्पादन में कोई खास श्रम नहीं लगता है। फिर भी इसका मूल्य माना जाता है, क्योंकि यह मूल्य, किसी माल के मुकाबले में तय किया जाता है और इस मूल्य की पुष्टि तब होती है, जब इसका उपयोग लेन-देन के माध्यम के रूप में किया जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि डॉलर का वर्चस्व, अंतरराष्ट्रीय लेन-देन में, सौदों के माध्यम के रूप में उसकी भूमिका पर टिका होता है। डॉलर को इस विशेष भूमिका से किसी भी प्रकार से अगर हटाया जाता है, तो यह डॉलर के इस वर्चस्व को ही कमजोर कर देगा। और जब देशों की बड़ी संख्या के खिलाफ पाबंदियां लगायी जाती हैं, जिससे वे वैकल्पिक व्यवस्थाएं करना शुरू कर देते हैं, तब डॉलर के वर्चस्व के कमजोर होने की ठीक यही आशंका पैदा हो जात
गैर-डॉलरीकरण की आम प्रवृत्ति
वास्तव में, डॉलर के वर्चस्व की भूमिका से हटने का अकेला कारण, ये पाबंदियां ही शायद नहीं होंगी। अनेक ऐसे देश भी, जो डॉलर के इस वर्चस्व से छुट्टी पाना चाहते हैं या अपने व्यापार के अवसरों को बस बढ़ाना ही चाहते हैं, वे भी स्वेच्छा से ऐसी व्यवस्थाओं में शामिल हो सकते हैं, जो लेन-देन के माध्यम के रूप में डॉलर की भूमिका को नकारती हों। मिसाल के तौर पर सोवियत संघ के जमाने में, उसके साथ भारत का जो द्विपक्षीय व्यापार समझौता था, वह किसी तरह की पाबंदियों के चलते, डॉलर के वर्चस्व वाली व्यवस्था से छुट्टी पाने के लिए नहीं किया गया था। यह समझौता तो सिर्फ इसकी इच्छा से संचालित था कि अपने विदेश व्यापार को, डॉलर के वर्चस्व वाली व्यवस्था में